Ashok Thakur

Wednesday 30 October 2019

विमुक्त जातियों के वर्तमान नहीं बल्कि इतिहास में जाने की आवश्यकता - अशोक ठाकुर

Ashok Thakur 


     विमुक्त जनजातियाँ वे हैं जो स्वतंत्रता से पूर्व विधि की दृष्टि से आपराधिक जनजातियाँ मानी जाती थी।स्वतंत्रता के पश्चात आपराधिक जनजाति अधिनियम निरस्त कर देने से ये जनजातियाँ विमुक्त जनजातियाँ कहलाई।घुमंतू जनजातियाँ वे जनजातियाँ हैं जो वर्ष के अधिकतर महीनों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमती रहती हैं (चाहे उसके कारण कुछ भी हों)विमुक्त और घुमंतू जनजातियों को एक स्थान पर रखकर अध्ययन करने के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि दोनों प्रकार की जनजातियों में विभाजन-रेखा बहुत से स्थानों पर स्पष्ट नहीं है।अर्थात कुछ विमुक्त जनजातियाँ घुमंतू हैं और कुछ नहीं भी और कुछ घुमंतू जनजातियों का वर्गीकरण पूर्व के आपराधिक जनजातियाँ कानून में था कुछ का जिक्र उस कानून में नहीं भी हो सकता है।लेकिन इनके सामाजिक ढाँचे एक दूसरे से काफ़ी मिलते जुलते हैं इसलिए इनका एक स्थान पर अध्ययन करने में कोई त्रुटि होने की संभावना नहीं है।मगर सारे विद्वान इस वर्गीकरण से सहमत हों ऐसा भी नहीं है। भारत पर ब्रिटिश शासन के दौरान सन 1870 के बाद बहुत से कानून पास किये गए जिन्हें हम आपराधिक जातीय कानून के तौर पर जानते हैं।इन कानूनों के लागू होने से कुछ पूरे के पूरे समुदाय आदतन अपराधी मान लिए गए।ये कानून मानते थे कि किसी समुदाय में जन्म लेने वाला व्यक्ति केवल उस समुदाय में जन्म लेने की वजह भर से ही गैर-जमानती अपराध करने में प्रवृत होता है।क्योंकि ये जन्मजात अपराधी माने गए इसलिए इनके आने/जाने पर प्रतिबंध लगाए गए।इन्हें पुलिस थानों में साप्ताहिक रिपोर्ट करने के लिए कहा गया।
      पहला आपराधिक जनजातीय कानून 1871 लगभग पूरे उत्तर भारत में लागू था।1876 में इसे बंगाल प्रेसीडेंसी और अन्य भागों में भी लागू कर दिया गया।1924 में संशोधित आपराधिक जनजातीय कानून अमल में आया।
      भारत की स्वाधीनता के समय 1947 में 127 जनजातियों के एक करोड़ सताईस लाख लोगों के विरुद्ध तलाशी और गिरफ्तारी लायक मामले इस कानून के तहत दर्ज थे।ये मामले सिर्फ इस लिए दर्ज थे कि उनके समुदाय के किसी व्यक्ति पर किसी गैर-जमानती अपराध में संलिप्त होने का संदेह था।
 1949 में यह कानुन हटा दिया गया लेकिन आपराधिक जनजातियों की सूची को विमुक्त करने का कार्य 1952 में किया गया जब आदतन अपराधी अधिनियम 1952 लागू हुआ।
         राज्य सरकारों ने विमुक्त और घुमंतू जातियों के नामों की अधिसूचना 1961 में जारी करनी शुरू की।
इस समय तक 313 घुमंतू जातियाँ और 198 विमुक्त जातियाँ अधिसूचित की गई हैं। लगभग छह करोड़ लोग इस दायरे में आ पाए हैं और इससे ज़्यादा लोग अभी भी इस दायरे से बाहर हैं। इनका अतीत इन्हें किसान समुदायों,पढ़े लिखे शहरी समुदायों में मिलने देने और समाज की मुख्यधारा में मिलने देने में मुख्य बाधा है।दूसरे ये लोग विभिन्न धर्मों यथा हिंदू, मुस्लिम, सिख,बौद्ध व ईसाई धर्मों की मिलन स्थली हैं।यानि एक ही परिवार के कुछ सदस्य मुस्लिम हैं,कुछ सिख,कुछ हिंदू कुछ बौद्ध व कुछ ईसाई हैं।अपने विशिष्ट जनजातीय रिवाजों के साथ धर्मों की विशिष्टता का घालमेल कहीं सुखद व कहीं विडम्बनापूर्ण दृश्य व घटनाक्रम उपस्थित करता है जो समाजशास्त्रियों,साहित्यकारों,कवि-संगीतकारों,धर्मशास्त्रियों,राजनीतिज्ञों व मानव इतिहासकारों को आकर्षित करता है।
 अंग्रेज पुलिस अधिकारियों व कानूनविदों के मस्तिष्क में यह विचार कि कुछ जनजातियां जन्मजात अपराधी होती हैं,आया कैसे या डाला किसने?
ऐतिहासिक अध्ययन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि ठगी की कुप्रथा का उन्मूलन करने के दौरान अंग्रेज सरकार के मन में यह धारणा बनी कि भारत में आपराधिक जनजातियाँ विद्यमान हैं जो अपराध को अपनी जाति के रीति-रिवाज की तरह अमल में लाती हैं जैसे कोई ब्राह्मण(धर्म-ग्रंथ अनुशीलन, अनुष्ठान व शिक्षा,कर्मकांड) या कोई  क्षत्रिय(तलवारबाजी,घुड़सवारी व सैनिक कार्य) व वैश्य(दुकानदारी, व्यापार अमल में लाता है। 1740 से 1840 के दशक में ठगों ने,जो काली के भक्त थे,दस लाख नागरिकों की हत्या की।इस समस्या का उन्मूलन करने के बाद अंग्रेज सरकार ने चोरी-चकारी, डाका डालने,लूटपाट,छुरेबाजी,हत्या,वेश्यावृत्ति व अन्य संज्ञेय-जमानती अपराध करने वाली जातियों के खिलाफ कार्रवाई करने व कानून बनाने की तरफ ध्यान दिया।
          हालाँकि कुछ विद्वानों का मानना है कि 1857 की क्रांति में जिन समुदायों में सशस्त्र विद्रोहों में हिस्सा लिया उन्हें अंग्रेज सरकार ने आपराधिक जनजतियों के उन्मूलन कानून में सूचीबद्ध कर दिया गया।
 इन पंक्तियों का लेखक इस निष्कर्ष से पूर्णतया सहमत नहीं है क्योंकि एक तो 1857 का सिपाही विद्रोह या बगावत जनता की भागीदारी न होने की वजह से असफल हुआ दूसरे यह उच्च जातियों व मुसलमान कुलीनों का विद्रोह था जो सत्ता को अपने चंगुल से खिसकते देखकर चिंतित थे।पिछड़ी व दलित जातियों में इस विद्रोह के समर्थन की जन-चेतना अनुपस्थित थी।उनके लिए अंग्रेजी राज कम पीड़ादायक व अत्याचारी था।
 कुछ इतिहासकार जैसा कि डेविड आर्नोल्ड समझते थे कि ये जनजातियाँ जो आदतन अपराधी मान ली गई थी वास्तव में घुमंतू व्यापारी, शिकारी व किसान थे जो समाज की अन्य एक जगह पर स्थिर बसने वाली जातियों के मुकाबले शक की निगाह से देखे गए।क्योंकि ये समाज की स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जीवन-यापन के आदी थे और 1857 के आसपास के सिपाही विद्रोहियों में भी योगदान कर चुके थे। इनमें अपराध की प्रकृति-प्रवृत्ति अन्य एक स्थान पर रहने वाली जातियों के मुकाबले उतनी ही या थोड़ी ज्यादा थी।लेकिन ये जनजातियाँ आदतन अपराधी नहीं थी।
 हां, रोजगार के उपाय न होने पर ये भैंस-चोरी व अन्य छोटे-मोटे उठाईगीरी,वेश्यावृत्ति के अपराध कर लेती थी लेकिन हत्या,संगठित लूट जैसे अपराध उनमें उतने ही व्याप्त थे जितने अन्य जातियों में।
 इन कानूनों के लागू होने का नुकसान यह हुआ कि एक शताब्दी तक इनके विकास,शिक्षा व सुधार पर बातचीत थम गई और इनके पारंपरिक रोजगार के साधन भी इनसे छिन गए।
 सामाजिक प्रवृत्तियां कभी भी जन्मजात प्रवृतियां नहीं होती।इनमें मूलभूत अंतर होता है।इस अंग्रेजी कानून से इन्हें एक ही मान लेने की ऐतिहासिक भूल की गई।घुमंतु बेरोजगार, धार्मिक यात्राओं में रोजगार ढूंढने वाले समुदाय,पशुओं को चराने के लिए चारागाह ढूंढ़ने वाले चरवाहे,जिप्सी समुदाय,गाड़िया लुहार,बेड़िया, खेल दिखाने वाले नट,नाचने वाले कंजर,गाना गाने वाले मिरासी,वेश्याएं,हिजड़े(किन्नर) एक सामाजिक समस्या थे ना की कानून व व्यवस्था की समस्या।
जो काम समाजशास्त्रियों व समाज-सुधारकों के जिम्मे होना चाहिए था
 वह पुलिस के हवाले कर दिया गया।पुलिस ने अपराध न होने पाए इस डर से इनकी सामाजिक वृति घूमने-फिरने,गाँव-गाँव जाकर रोजगार करने पर अवरोध लगा दिए जिससे इनके रोजी कमाने की क्षमता कम हुई और अपराध करने की मनोवृत्ति बढ़ी।
 1871 में जब यह बिल पास होने के लिए प्रस्तुत किया गया।इस की आवश्यकता पर बोलते हुए एक ब्रिटिश,टी.वी. स्टीफेंस का कथन उल्लेखनीय है,"भारत में सदियों से लोग जाति व कबीले के आधार पर रोज़गार करते हैं, यह प्रवृत्ति यूरोप में देखने में नहीं आती,कपड़ा बुनना,बढ़ईगीरी आदि व्यवसाय भारत में जातिगत हैं और पिता से संतान को स्थानांतरित हो रहे हैं इसी तरह अपराध भी पिता को संतान से आ रहे हैं जैसे किसान की जमीन का वारिस उसका बेटा है वैसे अपराधी के अपराध का वारिस उसका बेटा होता है।
 इस कानून से जैसे किसान का बेटा किसान,सैनिक का बेटा सैनिक होता था चोर का बेटा चोर व वेश्या की बेटी वेश्या मान ली गई।
 यह स्पष्ट है कि यह अवधारणा ठगी के उन्मूलन के दौरान ही ब्रिटिश अधिकारियों में विकसित हुई न कि 1857 की क्रांति के बाद!
 बाद में चाहे सरकार को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ और वे इन जनजातियों में से अपराध की आदत को समाप्त करके इनके लिए रोजगार के दूसरे उपाय करने लगे लेकिन जातीय कलंक व आवागमन में अवरोध की वजह से इन्हें रोजगार मिलने में बड़ी दिक्कत आती थी।
 पुलिस के हाथ में इस कानून की ताकत थी जिससे वे कभी भी आकर इनके घरों की तलाशी ले सकती थी।गिरफ्तारी कर सकती थी,आने-जाने पर प्रतिबंध लगा सकती थी।ऐसे में उन्हें स्थायी रोजगार कैसे मिलता!
 भारत में किन्नर(हिजड़े,ख्वाजा सरा)अपने परम्परागत कार्य में लगे रहते थे जैसे शादी और बच्चे के जन्म पर बधाई माँगना व नाचना व जमींदारों व राजाओं की हवेलियों में जनानखाने की रखवाली!उनमें से किन्नर समुदाय के कुछ सदस्य लड़कों के अपहरण व उनका लिंग काटकर अपने समुदाय में सम्मिलित करने का अपराध भी करते थे।लेकिन इस कानून में उनके समुदाय को भी शामिल कर लेने वे भी कानून द्वारा उत्पीड़ित होने लगे और उनके कला दिखाकर रोजी कमाने के काम पर अवरोध लग गए

सतीश सरदाना कुमार

Sunday 14 April 2019

सत्ता के लिए देश के लोकतान्त्रिक एवं संघीय ढांचे पर हमला क्यों और इसका दोषी कौन ?

Ashok Thakur

देश की सेना को राजनीतिक दावँ पेंच में घसीटने की कोशिश, चुनावी दौर में विपक्ष की आकांक्षाओं का वीभत्स रुप सामने लाया है। बड़ी बात यह राष्ट्रपति को लिखे गए इस पत्र की जिम्मेवारी लेने को कोई आधिकारिक रूप से सामने नहीं आ रहा है। मीडिया भी बजाय इसके ठोस तथ्यों की पड़ताल के पत्र में लिखी बातों पर बहस छेड़े हुए है जो एक खतरनाक ट्रेंड है। खासकर तब जब खुद राष्ट्रपति भवन ने और प्रमुख पूर्व सेनाधिकारियों ने इसका खंडन किया है। 

सत्ता के लिए देश के लोकतान्त्रिक एवं संघीय ढांचे पर हमला क्यों और इसका दोषी कौन ?
लोकसभा चुनाव के बीच अचानक एक चिठ्ठी सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बन गयी जोकि कुछ तथाकथित पूर्व-सैन्य अधिकारियों की ओर से देश के राष्ट्रपति के नाम लिखी गयी थी जिसकी पुष्टि अभी तक न तो राष्ट्रपति भवन ने की है और ना ही कोई लिखने वाला सामने आया है फिर भी देश के प्रतिष्ठित मीडिया में इसपर जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है सबसे बड़ी बात ये है कि आखिर 40 लाख पूर्व-सैनिकों का मत ये चंद लोग कैसे प्रकट कर सकते हैं और कब उन्होंने इस पर जनमत संग्रह कराया है। कुछ वरिष्ठ पूर्व-सैन्य अधिकारियों ने जब इसका खंडन किया और कहा कि उनका इस प्रकार के किसी पत्र की ना तो कोई लेना देना और ना ही उनको कोई जानकारी है। उन पूर्व सैन्य अधिकारीयों के इस खंडन के पश्चात ये स्पष्ट हो गया है कि ये पत्र किसी राजनैतिक षड्यंत्र के तहत पूर्व-सैनिकों के नाम का इस्तेमाल कर सनसनी फैलाने के उदेश्य से ही सोशल मीडिया पर डाला गया है ताकि उसका राजनैतिक लाभ लिया जा सके। दरअसल उरी और बाद में पुलवामा के आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान के खिलाफ जो मोदी सरकार ने सख्त कारवाई के लिए सेना को आदेश दिए उसके कारण देश के अन्दर प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में भावनात्मक वातावरण बना है जिससे घबराकर विपक्ष ने पहले तो सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाये और सेनाध्यक्ष को सडक का गुंडा तक कह डाला  उसके बाद वायुसेना की कारवाई पर भी सवाल उठाये गए। अब उसी कड़ी में ऐसा लगता है कि कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी और आम आदमी पार्टी ने अपने नजदीकी पूर्व सैनिकों के माध्यम से यह षड्यंत्र रचा है क्योंकि पत्र लिखने वालों की सूची में कुछ ऐसे प्रमुख नाम हैं, जिनके आने के बाद ये राजनीतिक पार्टियाँ अपनी जिम्मेदारी से बच नही सकती हैं। जैसे कि जनरल शंकर राय चौधरी जोकि पूर्व राज्यसभा सांसद हैं और कांग्रेस और कम्युनिष्ट पार्टी के सहयोग से राज्यसभा पहुंचे थे। इसी प्रकार एडमिरल राम दास आम आदमी पार्टी के आंतरिक लोकपाल रहे हैं और जनरल सतवीर सिंह ने तो न केवल कांग्रेस के प्रवक्ता के साथ सांझी प्रेस कांफ्रेंस की थी बल्कि कांग्रेस पार्टी के लिए प्रचार भी किया था। सूचि मैं एक और नाम पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नजदीकी का है जिनका नाम आदर्श सोसाइटी घोटाले में भी आया था । इसके अलावा अनेक नाम हैं , गहराई में जाने पर पता चलेगा कि वह सभी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व सैनिकों विंगों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहे हैं  इनमें से एक अधिकारी की बेटी का न केवल पाकिस्तान से सम्बन्ध है बल्कि देश के खिलाफ काम करने के जानी जाने बाली संस्था से भी वह जुडी हुई है | 

वैसे तो आजाद भारत में राजनैतिक षड्यंत्रों का एक लंबा इतिहास रहा है और सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु, श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्या, पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की रहस्यमय मृत्यु, पंडित दीन दयाल उपाध्याय और ललित नारायण मिश्र की रहस्यमय मृत्यु जैसे षड्यंत्रों से अभी तक पर्दा नहीं उठा है और असहिष्णुता का ढोल पीटने वाली कांग्रेस पार्टी ने तो इन मामलों में जाँच तक कराने की जरूरत तक नहीं समझी है। अब पिछले तीन-चार वर्षों में कम्युनिस्ट एवं कांग्रेस पिछले दरवाज़े से देश की संवैधानिक संस्थाओं पर गंभीर हमले कर रही है उदेश्य केवल और केवल वर्तमान सरकार को बदनाम करना है। मोदी सरकार को देश के अन्दर एवं बाहर बदनाम करने के अनेक प्रयास होते रहे हैं  क्योंकि ये सभी षड्यंत्र मोदी विरोध में तो किये गए परन्तु वे राष्ट्रवादी मोदी का विरोध करते-करते स्वत: ही देश विरोधी अभियान का हिस्सा बन गए और हर बार मुँह की खानी पड़ी है। पहले देश के अंदर असहिष्णुता को लेकर मोदी सरकार के खिलाफ  अभियान चलाया गया जिससे ना केवल देश बल्कि पूरे विश्व में भारत की साख को धब्बा लगा और इस अभियान को धार देने के लिए अवार्ड वापसी का प्रपंच रचा गया जो सफल नहीं हो सका इसके पश्चात जब मोदी सरकार ने 40 वर्षों से लंबित पूर्व सैनिकों की OROP की मांग को स्वीकार किया तो उसका श्रेय मोदी सरकार को ना मिले इसके लिए कम्युनिस्टों और कांग्रेस से जुड़े कुछ पूर्व-सैनिको के इशारे पर मेडल जलाने का अभियान चलाया गया और ऐसा वातावरण बनाने का प्रयास हुआ जैसे सरकार ने पूर्व-सैनिकों की मांग को माना ही नहीं हो जबकि सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। इसके कारण भी दुनिया के अनेक देशों में भारत की बदनामी हुई।कई बार प्रधानमन्त्री की विदेशी यात्रा के दौरान मेजबान देशों के यहाँ अनेक ऐसे लेख छपे इसके पश्चात् जब पूर्व-सैनिकों का एक बड़ा संगठन 'वाइस् आफ एक्स सर्विसमेन सोसाइटी' मेडल जलाने वालों के खिलाफ खड़ा हो गया तो आनन-फानन में ये अभियान वापिस ले लिया गया। बाद में उसी पूर्व- सैन्य अधिकारी, जिनके नेतृत्व में ये अभियान चला, उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए प्रचार किया आखिर कांग्रेस इससे कैसे बच सकती है।
इसी प्रकार कोरेगांव में हिंसा की साजिश रची गई ताकि दलितों और मराठों के बीच मतभेद बढाये जा सकें और उसका ठीकरा वर्तमान सरकार के सिर पर फोड़ दिया जाये परन्तु पुलिस जाँच में जब कुछ षडयंत्रकारियों के नाम सामने आये तो उनको गिरफ्तारी से बचाने के लिए इन्हीं राजनैतिक पार्टियों ने एड़ी चोटी का जोर लगाया, खैर आज वो लोग जेल की सलाखों के पीछे हैं। इसी प्रकार दलितों के शांतिपूर्ण आन्दोलन में कुछ धर्म विशेष के लोगों ने घुसकर उसे हिंसक रूप देने का प्रयास किया और काफी हद तक सफल भी हुए और इसके कारण अनेक लोगों की जान चली गयी परन्तु पुलिस की तत्परता से वे सभी षड्यंत्रकारी जेल की सलाखों के पीछे हैं। यही नहीं इन लोगों ने अपने षड्यंत्रों से माननीय उच्चतम न्यायलय तक को नहीं बख्शा, कुछ फर्जी हस्ताक्षरों के बल पर माननीय उच्चतम न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग भी लाने का प्रयास किया गया। जिसमें वो सफल नहीं हुए और अंत में तो भारत के निर्वाचन आयोग के खिलाफ विदेशी धरती पर जाकर षड्यंत्र रचा गया, उसको कमजोर करने की कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। पहले भी इन पार्टियों के नेता गैर-जिम्मेदाराना ब्यान देते रहे हैं।पूर्व-सैनिकों का राजनैतिक इस्तेमाल कर भारत के लोकतान्त्रिक एवं संघीय ढांचे पर कांग्रेस एवं उसके साथियों का ये सबसे बड़ा हमला है जिसके लिए देश इनको माफ़ नहीं करने वाला है। सबसे बड़ी बात ये है कि देश के सैनिक भी वोटर हैं और अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं और उनको भी देश के निति निर्धारकों के विचार और योजनाओं की जानकारी मिलनी चाहिए |
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता की भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं ने जोश में आकर गलती नहीं की होगी और इस तरह की मानवीय गलतियाँ तो भावना में बहकर देश का आम नागरिक भी कर देता हैं। मसलन फौजी वर्दी पहन लेना या विंग कमांडर अभियान का चित्र लगाना इत्यादि, जिसके आधार पर  भाजपा को सेना का राजनीतिकरण करने का आरोप लगाया गया। यह गलत है और उसकी आड़ में सेना को अलग एंटिटी के रूप में पेश करना देश के लोकतान्त्रिक एवं संघीय ढांचे पर करारा हमला है। 
आखिर में इस तरह का आरोप लगाने वाले लोंगों से पूछना चाहता हूँ कि क्या सेना सरकार का हिस्सा नहीं है । जब आयकर विभाग, प्रर्वतन निदेशालय, सीबीआई, रेलवे या पैरामिलिट्री इत्यादि विभाग द्वारा किये खराब कार्यों के लिए प्रधानमंत्री या संबधित मंत्री पर सवाल उठाये जा सकते हैं और उनके अच्छे कार्यों का श्रेय सरकार को दिया जाता है तो सरकार के आदेश पर सेना द्वारा की गयी सफल करवाई का श्रेय सरकार को क्यों नहीं दिया जा सकता है। यदि इस कारवाई में सेना को असफलता मिलती तो क्या विपक्ष प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री पर सवाल नहीं उठाते और यदि उठाते तो सेना की सफल करवाई का श्रेय देश की सरकार के मुखिया प्रधानमंत्री को ही जाएगा क्योंकि सेना भी सरकार का एक हिस्सा है और उसके सभी सफल और असफल अभियानों की जिम्मेदारी भी सरकार की ही बनती है। सवाल उठाने वालों से मेरा सवाल है कि ऐसी ही कार्रवाई 26/11 के मुंबई आतंकवादी हमले के बाद सेना ने क्यों नहीं की थी। पुलवामा के आतंकी हमले के बाद पूर्व-सैन्य अधिकारी चैनलों पर बैठकर बार-बार सरकार से मजबूत इच्छा शक्ति के साथ पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कारवाई करने का आग्रह क्यों कर रहे थे क्यों कि वे सभी जानते थे सरकार की मजबूत इच्छा शक्ति और आदेश के बगैर पाकिस्तान पर कोई भी सैन्य कारवाई नहीं हो सकती है।इसके अलावा जो कांग्रेसी एवं कम्युनिस्ट मित्र मोदी की सेना पर सवाल उठा रहे हैं वो 1971 के युद्ध के बाद इंदिरा के दुर्गा अवतार को 40 वर्ष तक क्यों बेचते रहे या जब USSR की सेनायें कार्रवाई करती हैं तो पुतिन की सेना कहकर क्यों उनको महामंडित किया जाता है। अगर हम याद करें, तो न जाने कितनी बार सदाम और बिल क्लिंटन की सेनाओं का जिक्र होता था जबकि वे ईराक और अमेरिका की सेनाएं थीं, इसी तरह अगर एक सामान्य बोलचाल की भाषा में आदित्यनाथ योगी ने मोदी की सेना कह दिया तो उसपर इतना बवंडर क्यों खड़ा किया जा रहा है आखिर इनके मापदंड दोहरे क्यों हैं, पुतिन के लिए अलग और मोदी के लिए अलग क्यों ?

मुझे लगता है इन राजनैतिक पार्टियों ने जब देखा कि उनके सभी कुत्सित चालों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है और विपक्ष मुकाबले से बाहर होता जा रहा है तो उन्होंने पूर्व-सैन्य अधिकारियों के नामों का झूठा इस्तेमाल कर प्रधानमंत्री मोदी को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। ये पूर्ण रूप से एक ऐसा राजनैतिक षडयन्त्र दिखाई पड़ता है जो देश के लोकतान्त्रिक एवं संघीय ढांचे को कमजोर करने वाला है।  विपक्षी दलों ने कुछ  पूर्व-सैनिकों के साथ राजनैतिक सौदेबाजी कर साजिश रचने का काम किया है। यह निंदनीय है और इसकी जितनी भर्त्सना की जाये उतनी कम है। मैं सरकार से मांग करता हूँ कि जिस तरह वरिष्ठ पूर्व सैन्य अधिकारियों के नामों का इस्तेमाल कर झूठ फैलाया गया है, उसकी उच्चस्तरीय जाँच होनी चाहिए । 

एक महत्वपूर्ण मुद्दा और उठाना चाहूंगा, जैसा कि कुछ पूर्व-सैनिक मित्रों का कहना है कि जब सेवानिवृत पूर्व-सैन्य अधिकारियों को पुनर्वास के नाम पर पेट्रोल पम्प, सिक्यूरिटी एजेंसी, लोडिंग-अनलोडिंग के ठेके एवं अनेक सुविधाएँ दी जाती हैं वह केवल उच्च अधिकारियों को मिलता है, सामान्य सिपाहियों को नहीं। ये क्रीमी लेयर को दिये जाने वाले आरक्षण का विश्व में एक मात्र उदाहरण है आखिर इस जारी प्रथा के खिलाफ इन पूर्व-सैन्य अधिकारियों ने राष्ट्रपति को पत्र क्यों नहीं लिखा?  
इसके अलावा सेना के अंदर चली आ रही 'सेवादारी कुप्रथा' के खिलाफ क्यों नहीं अभियान छेड़ा गया जबकि वे जानते हैं कि एक प्रशिक्षित एवं स्वाभिमानी सैनिक को घरेलू कामों में इस्तेमाल करने की औपनिवेशिक व्यवस्था को खत्म करने की आवश्यकता है। और सबसे बड़ी बात यह कि जो सैनिक सीमा पर पसीना बहाता है, पदोन्नति के समय उसके बजाय अधिकारी के घर में सेवादारी का काम करने वालों को ज्यादा तरजीह दी जाती है जो अपने आप में एक अन्याय और बड़ा भेदभाव है। यह एक अघोषित अन्यायपूर्ण आरक्षण व्यवस्था है परन्तु कभी एक शब्द नहीं बोला गया । 
देश की जनता पूर्व-सैनिकों को बहुत ही सम्मान के नजरिये से देखती है और उनके वक्तव्यों को भी काफी गंभीरता से लेती है। इसके अलावा उनके पास देश की सुरक्षा से जुडी अनेक संवेदनशील जानकारियां भी होती हैं अबतक तो ऐसा कोई उदहारण नहीं आया है जहाँ पूर्व सैन्य अधिकारीयों को राजनैतिक हितों के लिए इस्तेमाल किया गया हो परन्तु वर्तमान घटना के पश्चात सरकार को सावधान हो जाना चाहिये।भविष्य में सेवानिवृति के पश्चात् पूर्व-सैन्य अधिकारियो को राजनैतिक पार्टियों, लाभ के सरकारी पदों  या विदेशी सेवाओं में भागीदारी पर एक निश्चित अवधि तक रोक लगाने का प्रावधान होना चाहिए विशेषकर जिन पूर्व-सैन्य अधिकारीयों ने पुनर्वास के तहत सरकार से सुविधायें प्राप्त की हो ताकि पूर्व-सैन्य अधिकारियों का शिष्टाचार एवं सदाचार बना रहे। कोई भी गलत उद्देश्य से उनका राजनैतिक अथवा कूटनीतिक इस्तेमाल ना कर सके। 

अशोक ठाकुर
लेखक नेफेड के निदेशक एवम पूर्व सैनिक हैं।