Ashok Thakur

Wednesday 30 October 2019

विमुक्त जातियों के वर्तमान नहीं बल्कि इतिहास में जाने की आवश्यकता - अशोक ठाकुर

Ashok Thakur 


     विमुक्त जनजातियाँ वे हैं जो स्वतंत्रता से पूर्व विधि की दृष्टि से आपराधिक जनजातियाँ मानी जाती थी।स्वतंत्रता के पश्चात आपराधिक जनजाति अधिनियम निरस्त कर देने से ये जनजातियाँ विमुक्त जनजातियाँ कहलाई।घुमंतू जनजातियाँ वे जनजातियाँ हैं जो वर्ष के अधिकतर महीनों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमती रहती हैं (चाहे उसके कारण कुछ भी हों)विमुक्त और घुमंतू जनजातियों को एक स्थान पर रखकर अध्ययन करने के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि दोनों प्रकार की जनजातियों में विभाजन-रेखा बहुत से स्थानों पर स्पष्ट नहीं है।अर्थात कुछ विमुक्त जनजातियाँ घुमंतू हैं और कुछ नहीं भी और कुछ घुमंतू जनजातियों का वर्गीकरण पूर्व के आपराधिक जनजातियाँ कानून में था कुछ का जिक्र उस कानून में नहीं भी हो सकता है।लेकिन इनके सामाजिक ढाँचे एक दूसरे से काफ़ी मिलते जुलते हैं इसलिए इनका एक स्थान पर अध्ययन करने में कोई त्रुटि होने की संभावना नहीं है।मगर सारे विद्वान इस वर्गीकरण से सहमत हों ऐसा भी नहीं है। भारत पर ब्रिटिश शासन के दौरान सन 1870 के बाद बहुत से कानून पास किये गए जिन्हें हम आपराधिक जातीय कानून के तौर पर जानते हैं।इन कानूनों के लागू होने से कुछ पूरे के पूरे समुदाय आदतन अपराधी मान लिए गए।ये कानून मानते थे कि किसी समुदाय में जन्म लेने वाला व्यक्ति केवल उस समुदाय में जन्म लेने की वजह भर से ही गैर-जमानती अपराध करने में प्रवृत होता है।क्योंकि ये जन्मजात अपराधी माने गए इसलिए इनके आने/जाने पर प्रतिबंध लगाए गए।इन्हें पुलिस थानों में साप्ताहिक रिपोर्ट करने के लिए कहा गया।
      पहला आपराधिक जनजातीय कानून 1871 लगभग पूरे उत्तर भारत में लागू था।1876 में इसे बंगाल प्रेसीडेंसी और अन्य भागों में भी लागू कर दिया गया।1924 में संशोधित आपराधिक जनजातीय कानून अमल में आया।
      भारत की स्वाधीनता के समय 1947 में 127 जनजातियों के एक करोड़ सताईस लाख लोगों के विरुद्ध तलाशी और गिरफ्तारी लायक मामले इस कानून के तहत दर्ज थे।ये मामले सिर्फ इस लिए दर्ज थे कि उनके समुदाय के किसी व्यक्ति पर किसी गैर-जमानती अपराध में संलिप्त होने का संदेह था।
 1949 में यह कानुन हटा दिया गया लेकिन आपराधिक जनजातियों की सूची को विमुक्त करने का कार्य 1952 में किया गया जब आदतन अपराधी अधिनियम 1952 लागू हुआ।
         राज्य सरकारों ने विमुक्त और घुमंतू जातियों के नामों की अधिसूचना 1961 में जारी करनी शुरू की।
इस समय तक 313 घुमंतू जातियाँ और 198 विमुक्त जातियाँ अधिसूचित की गई हैं। लगभग छह करोड़ लोग इस दायरे में आ पाए हैं और इससे ज़्यादा लोग अभी भी इस दायरे से बाहर हैं। इनका अतीत इन्हें किसान समुदायों,पढ़े लिखे शहरी समुदायों में मिलने देने और समाज की मुख्यधारा में मिलने देने में मुख्य बाधा है।दूसरे ये लोग विभिन्न धर्मों यथा हिंदू, मुस्लिम, सिख,बौद्ध व ईसाई धर्मों की मिलन स्थली हैं।यानि एक ही परिवार के कुछ सदस्य मुस्लिम हैं,कुछ सिख,कुछ हिंदू कुछ बौद्ध व कुछ ईसाई हैं।अपने विशिष्ट जनजातीय रिवाजों के साथ धर्मों की विशिष्टता का घालमेल कहीं सुखद व कहीं विडम्बनापूर्ण दृश्य व घटनाक्रम उपस्थित करता है जो समाजशास्त्रियों,साहित्यकारों,कवि-संगीतकारों,धर्मशास्त्रियों,राजनीतिज्ञों व मानव इतिहासकारों को आकर्षित करता है।
 अंग्रेज पुलिस अधिकारियों व कानूनविदों के मस्तिष्क में यह विचार कि कुछ जनजातियां जन्मजात अपराधी होती हैं,आया कैसे या डाला किसने?
ऐतिहासिक अध्ययन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि ठगी की कुप्रथा का उन्मूलन करने के दौरान अंग्रेज सरकार के मन में यह धारणा बनी कि भारत में आपराधिक जनजातियाँ विद्यमान हैं जो अपराध को अपनी जाति के रीति-रिवाज की तरह अमल में लाती हैं जैसे कोई ब्राह्मण(धर्म-ग्रंथ अनुशीलन, अनुष्ठान व शिक्षा,कर्मकांड) या कोई  क्षत्रिय(तलवारबाजी,घुड़सवारी व सैनिक कार्य) व वैश्य(दुकानदारी, व्यापार अमल में लाता है। 1740 से 1840 के दशक में ठगों ने,जो काली के भक्त थे,दस लाख नागरिकों की हत्या की।इस समस्या का उन्मूलन करने के बाद अंग्रेज सरकार ने चोरी-चकारी, डाका डालने,लूटपाट,छुरेबाजी,हत्या,वेश्यावृत्ति व अन्य संज्ञेय-जमानती अपराध करने वाली जातियों के खिलाफ कार्रवाई करने व कानून बनाने की तरफ ध्यान दिया।
          हालाँकि कुछ विद्वानों का मानना है कि 1857 की क्रांति में जिन समुदायों में सशस्त्र विद्रोहों में हिस्सा लिया उन्हें अंग्रेज सरकार ने आपराधिक जनजतियों के उन्मूलन कानून में सूचीबद्ध कर दिया गया।
 इन पंक्तियों का लेखक इस निष्कर्ष से पूर्णतया सहमत नहीं है क्योंकि एक तो 1857 का सिपाही विद्रोह या बगावत जनता की भागीदारी न होने की वजह से असफल हुआ दूसरे यह उच्च जातियों व मुसलमान कुलीनों का विद्रोह था जो सत्ता को अपने चंगुल से खिसकते देखकर चिंतित थे।पिछड़ी व दलित जातियों में इस विद्रोह के समर्थन की जन-चेतना अनुपस्थित थी।उनके लिए अंग्रेजी राज कम पीड़ादायक व अत्याचारी था।
 कुछ इतिहासकार जैसा कि डेविड आर्नोल्ड समझते थे कि ये जनजातियाँ जो आदतन अपराधी मान ली गई थी वास्तव में घुमंतू व्यापारी, शिकारी व किसान थे जो समाज की अन्य एक जगह पर स्थिर बसने वाली जातियों के मुकाबले शक की निगाह से देखे गए।क्योंकि ये समाज की स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध जीवन-यापन के आदी थे और 1857 के आसपास के सिपाही विद्रोहियों में भी योगदान कर चुके थे। इनमें अपराध की प्रकृति-प्रवृत्ति अन्य एक स्थान पर रहने वाली जातियों के मुकाबले उतनी ही या थोड़ी ज्यादा थी।लेकिन ये जनजातियाँ आदतन अपराधी नहीं थी।
 हां, रोजगार के उपाय न होने पर ये भैंस-चोरी व अन्य छोटे-मोटे उठाईगीरी,वेश्यावृत्ति के अपराध कर लेती थी लेकिन हत्या,संगठित लूट जैसे अपराध उनमें उतने ही व्याप्त थे जितने अन्य जातियों में।
 इन कानूनों के लागू होने का नुकसान यह हुआ कि एक शताब्दी तक इनके विकास,शिक्षा व सुधार पर बातचीत थम गई और इनके पारंपरिक रोजगार के साधन भी इनसे छिन गए।
 सामाजिक प्रवृत्तियां कभी भी जन्मजात प्रवृतियां नहीं होती।इनमें मूलभूत अंतर होता है।इस अंग्रेजी कानून से इन्हें एक ही मान लेने की ऐतिहासिक भूल की गई।घुमंतु बेरोजगार, धार्मिक यात्राओं में रोजगार ढूंढने वाले समुदाय,पशुओं को चराने के लिए चारागाह ढूंढ़ने वाले चरवाहे,जिप्सी समुदाय,गाड़िया लुहार,बेड़िया, खेल दिखाने वाले नट,नाचने वाले कंजर,गाना गाने वाले मिरासी,वेश्याएं,हिजड़े(किन्नर) एक सामाजिक समस्या थे ना की कानून व व्यवस्था की समस्या।
जो काम समाजशास्त्रियों व समाज-सुधारकों के जिम्मे होना चाहिए था
 वह पुलिस के हवाले कर दिया गया।पुलिस ने अपराध न होने पाए इस डर से इनकी सामाजिक वृति घूमने-फिरने,गाँव-गाँव जाकर रोजगार करने पर अवरोध लगा दिए जिससे इनके रोजी कमाने की क्षमता कम हुई और अपराध करने की मनोवृत्ति बढ़ी।
 1871 में जब यह बिल पास होने के लिए प्रस्तुत किया गया।इस की आवश्यकता पर बोलते हुए एक ब्रिटिश,टी.वी. स्टीफेंस का कथन उल्लेखनीय है,"भारत में सदियों से लोग जाति व कबीले के आधार पर रोज़गार करते हैं, यह प्रवृत्ति यूरोप में देखने में नहीं आती,कपड़ा बुनना,बढ़ईगीरी आदि व्यवसाय भारत में जातिगत हैं और पिता से संतान को स्थानांतरित हो रहे हैं इसी तरह अपराध भी पिता को संतान से आ रहे हैं जैसे किसान की जमीन का वारिस उसका बेटा है वैसे अपराधी के अपराध का वारिस उसका बेटा होता है।
 इस कानून से जैसे किसान का बेटा किसान,सैनिक का बेटा सैनिक होता था चोर का बेटा चोर व वेश्या की बेटी वेश्या मान ली गई।
 यह स्पष्ट है कि यह अवधारणा ठगी के उन्मूलन के दौरान ही ब्रिटिश अधिकारियों में विकसित हुई न कि 1857 की क्रांति के बाद!
 बाद में चाहे सरकार को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ और वे इन जनजातियों में से अपराध की आदत को समाप्त करके इनके लिए रोजगार के दूसरे उपाय करने लगे लेकिन जातीय कलंक व आवागमन में अवरोध की वजह से इन्हें रोजगार मिलने में बड़ी दिक्कत आती थी।
 पुलिस के हाथ में इस कानून की ताकत थी जिससे वे कभी भी आकर इनके घरों की तलाशी ले सकती थी।गिरफ्तारी कर सकती थी,आने-जाने पर प्रतिबंध लगा सकती थी।ऐसे में उन्हें स्थायी रोजगार कैसे मिलता!
 भारत में किन्नर(हिजड़े,ख्वाजा सरा)अपने परम्परागत कार्य में लगे रहते थे जैसे शादी और बच्चे के जन्म पर बधाई माँगना व नाचना व जमींदारों व राजाओं की हवेलियों में जनानखाने की रखवाली!उनमें से किन्नर समुदाय के कुछ सदस्य लड़कों के अपहरण व उनका लिंग काटकर अपने समुदाय में सम्मिलित करने का अपराध भी करते थे।लेकिन इस कानून में उनके समुदाय को भी शामिल कर लेने वे भी कानून द्वारा उत्पीड़ित होने लगे और उनके कला दिखाकर रोजी कमाने के काम पर अवरोध लग गए

सतीश सरदाना कुमार