Ashok Thakur

Saturday 11 April 2020

कन्नौज के सांसद पर दलित एक्ट लगाने के मायने और कुछ गंभीर सवाल

          कन्नौज के घटनाक्रम ने एक बार फिर दलित एक्ट के संबंध में पारित सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश की याद दिला दी है | सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इसके दुरूपयोग को लेकर कड़ी टिप्पणी की थी ताकि भविष्य में लाखों पीड़ित सामान्य जाति के लोगों को राहत मिल सके और शोषण में कमी आये | ये अल्लग बात है कि उस निर्णय को सरकार ने दलित संगठनों के दबाब में आकर कानून बनाकर न केवल पलट दिया बल्कि उसको और सख्त बना दिया |  
          अभी सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को संसद द्वारा कानून बनाकर पलटे वामुश्किल एक वर्ष ही हुआ है | परन्तु इसके दुरूपयोग के मामले पहले से दुगने हो गए हैं सामान्य लोग तो इससे से पीड़ित थे ही परन्तु कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश में कन्नौज के सांसद श्री सुब्रत पाठक जी के खिलाफ एक दलित तहसीलदार श्री अरविन्द कुमार जी की शिकायत पर मुकदमा दर्ज किया गया है | जो इसके दुरूपयोग का अलग प्रकार का उदाहरण है | जिसमें सरकारी कर्मचारी के साथ मारपीट, सरकारी काम में बाधा डालना इत्यादि धाराओं के साथ-साथ दलित एक्ट भी लगाया गया है अर्थात उनका जाति के आधार पर उत्पीड़न हुआ है | मुकदमा देश की सबसे बड़ी पंचायत के सदस्य के खिलाफ दर्ज हुआ है इसलिए इसका समाज पर प्रभाव पड़ना स्वाभिक है क्योंकि सामान्यत: जिनके खिलाफ ये मुकदमा दर्ज हुआ है उनके खिलाफ कोई पिछड़े या गरीब तो छोड़िय, कोई अगड़ा और दबंग व्यक्ति भी मुकदमा दर्ज कराने की हिम्मत नहीं करेगा और तब ये और भी अटपटा लगता है कि जब शिकायतकर्ता स्वयं सरकार के सर्वोच्च पद पर बैठा हो और कहता हो कि उसका उत्पीड़न हुआ है | इस घटना ने बहुत सारे सवाल खड़े किये हैं जिनपर चर्चा होनी जरूरी है | लेकिन चर्चा से पहले पुरे घटनाक्रम को समझना अति आवश्यक है | ताकि इसकी गहराई को ठीक से समझा जा सके |
          पिछले दिनों कारोना वायरस के चलते देश के अन्दर लाकडाउन चल रहा है इसी लाकडाउन के मद्देनजर योगी सरकार ने गरीबों को 15 किलो गेहूं और 20 किलो चावल देने का निर्णय लिया है ताकि गरीब लोग बिना किसी परशानी के अपने घरों में बने रहें | इस कार्य को पुरा करने की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन पर थी | लेकिन इसके क्रियान्वन पर लगातार शिकायतें आ रही थी | वैसे तो हम प्रशासन की कार्यशैली और उसमें फैले भ्रष्टाचार से परिचित हैं | सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार किस हद तक फैला है और इसके कारण सरकारों की अच्छी से अच्छी योजनाओं का क्या हश्र होता है ये हम देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के मुंह से सुन चुके हैं  कन्नौज के अन्दर भी योगी सरकार की इस योजना का हाल भी कुछ वैसा ही हो रहा था | लोगों को घटिया क्वालिटी का राशन दिया जा रहा था | स्थानीय लोग इसके खिलाफ आवाज उठाना चाहें तो प्रशासन के अन्दर उनकी कोई सुनने बाला नहीं था | सरकारी अधिकारी या तो आसानी से उपलब्ध नहीं थे जो थे भी उसी  तंत्र का हिस्सा थे | 
          अत: में तंग आकर स्थानीय लोगों ने इसकी शिकायत अपने क्षेत्र के सांसद श्री सुब्रत पाठक जी से कर दी  जो अपनी सक्रियता के लिए जाने जाते हैं और मोदी सरकार का लाकडाउन प्रभावी तरीके से लागु हो इसके लिए कड़ी मेहनत भी कर रहे थे | उन्होंने इस महामारी से लड़ने के लिए अपनी निधि से काफी योगदान किया और एक जनप्रतिनिधि होने के नाते जनता की शिकायतों का निवारण करना भी उनकी जिम्मेदारी भी बनती है | इसलिए उन्होंने शिकायत को गंभीरता से लिया और संबधित अधिकारी अर्थात सदर तहसीलदार श्री अरविन्द कुमार जी से बात करनी चाही | परन्तु वो इसका जबाब देने के इच्छुक नहीं थे | इसका कारण शायद उन्हें अपनी चोरी पकडे जाने का डर भी सता रहा होगा | संभत: इसमें उन्हें उनके किसी बरिष्ठ अधिकारियों की भी शह हो सकती है | अत: उन्होंने माननीय सांसद महोदय को जबाब देने की वजाय नजरंदाज ज्यादा ठीक समझा | अब इस बात से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि ये बात माननीय सांसद महोदय को ये बात नागवार गुजरी होगी और गुजरनी भी चाहिए | आखिर वे जनप्रतिनिधि हैं और इसके लिए जनता को जबाबदेह भी हैं संभवत: इसपर बाद-विबाद भी बढ़ गया होगा | परन्तु सरकारी अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिए सांसद के खिलाफ उपरोक्त धाराओं में मुकदमा दर्ज कराए वो आश्चर्यजनक है अभी वैसे तो ये सब जाँच का विषय है और उस पर टिप्पणी करना उचित नहीं है | परन्तु सासंद महोदय एवं उनके साथियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज होने और वो भी दलित एक्ट की धाराओं के साथ इससे  अनेक गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं जैसे कि:-

  • अगर जनता की शिकायत के संबंध में एक तहसीलदार से सवाल पूछने पर, देश सबसे बड़ी पंचायत के सदस्य अर्थात सांसद महोदय या किसी विधायक के खिलाफ मुक़दमा दर्ज हो सकता है तो क्या उस अधिकारी से कोई सामान्य नागरिक सवाल पूछने की हिमाकत कर सकेगा | शायद कभी नहीं | अर्थात उसकी जबाबदेही समाप्त और वो जो चाहे जैसे चाहे अपनी मनमानी कर सकता है |
  • अगर दलित अधिकारी भ्रष्टाचार करता है तो उससे सवाल पूछने के लिए सरकार के पास क्या तंत्र है | क्योंकि इस घटना से तो ये सिद्ध हो गया है कि अगर एक सांसद या विधायक ही सवाल नहीं पूछ सकता तो सामान्य जाति के बरिष्ठ अधिकारी तो कभी नहीं पूछेगा | जैसा कि हम सब जानते हैं कि इसी तरह का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था जहां दलित वर्ग से आने वाले कनिष्ठ अधिकारी ने सामान्य जाति के बरिष्ठ अधिकारी के खिलाफ सवाल पूछने पर दलित एक्ट के तहत झूठा मुकदमा दर्ज कराया था | जिसकी पीड़ा उसको बर्षों तक सहनी पड़ी थी | अंत में सुप्रीम कोर्ट के हस्ताक्षेप के बाद न्याय मिला था | लेकिन सभी अधिकारी इतने सक्षम नहीं होते हैं | 
  • यदि सरकार में सर्वोच्च पदों पर बैठे अधिकारी भी खुद को दलित एवं पीड़ित कहकर इस कानून का सहारा लेते हों तो कानून की सार्थकता समाप्त हो जाएगी | अगर देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे अर्थात राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री या वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट्स भी कमजोर मानसिकता से बाहर नहों आयेंगे तो वे कैसे समाज की मुख्य धारा से जुड़ेंगे | 
  • दलित वर्ग से आने वाले कुछ चतुर, चालाक और धूर्त लोग इस एक्ट का दुरूपयोग कर सकते हैं इसको रोकने के लिए उसी वर्ग के लोगों को आना चाहिए | 
  • क्या इस मुकदमें से देश की सामान्य जातियों के मन में डर और खौफ पैदा नहीं होगा | अगर होगा तो वो डर और खौफ में जीने को मजबूर होंगे | तो संबिधान की उस सपथ का क्या होगा जिसमें वो सभी के लिए समान न्याय की वकालत करता है |        
  • सामाजिक न्याय विभाग के आंकड़े कहते हैं कि बर्ष 2015 में कुल 15638 मामले इस कानून के तहत दर्ज हुए हैं जिसमें 11024 मामले गलत पाए गए और 495 वापिस ले लिए गये अर्थात ये मामले प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध थे और उनके अनुसार इसका अनुपात लगभग 75 फीसदी है ये अपने आप में इसके दुरुपयोग को सिद्ध करने के लिए काफी है | इसमें उन हजारों मामलों का जिक्र नहीं है जिनमें शिकायतकर्ता ने पैसे या अन्य कोई लाभ लेकर समझौता कर लिया था | इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है |  
          उपरोक्त तथ्यों पर गौर करने के बाद और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार हमें इस सचाई को स्वीकार करना पड़ेगा कि इस कानून का देश में व्यापक स्तर पर दुरूपयोग हो रहा है इस बात में कोई दो राय नहीं है कि एक लम्बे समय तक दलित समाज के लोगों के साथ भेदभाव हुआ है | जिसके लिए उनको अवश्य ही सामाजिक सुरक्षा मिलनी ही चाहिए थी | भारत के संविधान निर्माताओं ने देश के संविधान में दलित समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए कुछ विशेष  प्रावधान भी हैं और हमें ये भी पता होना चाहिए कि जिस समिति ने इन प्रावधानों को शामिल करने की सिफारिश की और जिन्होंने इसको शामिल किया उनमें भी 95 प्रतिशत सामान्य जाति के ही लोग थे | उन्होंने दलित भाई-बहनों को मुख्य धारा में लाने के लिए अपने समाज का हक़ काटकर दिया है | कुछ दलित चिन्तक जो चिला-चिला कर ये कहते हैं कि ये उनका अधिकार है तो उन्हें ये भी ज्ञात होना चाहिए कि अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 को जिस संसद ने पास किया | उसमें भी बहुमत सामान्य जाति के ही लोगों का था | आज भी जब संसद ने जब सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने का काम किया तो संसद में भी बहुमत सामान्य जाति के ही लोगों का था | इसलिए उनको ये समझना चाहिए कि अधिकार नहीं बल्कि एक सुविधा है और स्वयं दलित समाज के बुद्धिजीवी एवं चिंतकों को इसके दुरूपयोग को रोकने के लिए आगे आना चाहिए | अन्यथा समाज में ये इतनी कुंठा भर देगा | जिसको भविष्य में उस खाई को पाटना असंभव हो जायेगा और उसके दूरगामी परिणाम खराब हो सकते हैं |
          परन्तु मुझे अत्यंत दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि इसके दुरूपयोग को रोकने के लिए प्रयास करने की वजाय कुछ दलित बुद्धिजीवी, चिन्तक एवं राजनीतिज्ञ न केवल लगातार उतेजना पैदा करने बाले ब्यान देते हैं बल्कि अपने निहित स्वार्थों के लिए इस खाई को और गहरा करने का प्रयास करते हैं | हमने समानता के अधिकारों के लिए होने बाले आन्दोलनों के बारे जरुर पढ़ा और सुना था | परन्तु दूसरों से ज्यादा और असीमित अधिकार प्राप्त करने के लिए इतना हिंसक आन्दोलन मानव इतिहास में पहला ही होगा | मेरा ये भी मानना है कि मानव इतिहास का शायद ये एक मात्र कानून होगा जो किसी विशेष सामजिक वर्ग को दुसरे सामाजिक वर्ग के खिलाफ असीमित अधिकार देता हो | जिसमें प्राकृतिक न्याय को नजरंदाज करते हुए सामाजिक की कल्पना करना ठीक हैं | 
          मैं देश की संसद के सभी सदस्यों, जिसमें स्वयं माननीय सांसद श्री सुब्रत पाठक भी शामिल हैं, से सवाल पूछना चाहता हूँ कि आखिर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलते वक्त इन सब बातों पर गौर क्यों नहीं किया गया | आखिर इस बात की क्या गांरटी है कि सभी दलित भोले-भाले हैं और उनमें कोई चतुर, चालाक, धूर्त या बेईमान नहीं हो सकता है | जो कि  कानून का वेजा इस्तेमाल नहीं करेगा |
         मेरा मानना है कि अगर संविधान निर्माताओं को छोड़ दें तो सभी सरकारों एवं राजनीतिज्ञों ने अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए ये कानून बनाये हैं | ऐसा नहीं है कि भारतीय दंड सहिंता में इसके लिए कोई प्रावधान नहीं है परन्तु जब सरकारें भारतीय दंड सहिंता के तहत, पुलिस और प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार की बजह से, संरक्षण नहीं दे पाए | तो जनता के दबाब में उन्होंने ध्यान बाँटने के लिए इस तरह के कानून बनाये फिर वो चाहे दलित एक्ट 1989 हो, दहेज प्रथा कानून हो या वर्तमान महिला कानून हो | परन्तु ये बात भी सत्य है कि इन कानूनों के द्वारा एक व्यक्ति विशेष को असीमित अधिकार देने की बजह से असंख्य लोग पीड़ित हैं और भयंकर मानसिक कष्टों से गुजरने को मजबूर हैं | परिवार के परिवार बर्बाद हो गए हैं | पुलिस में फैला भ्रष्टाचार उनकी इस पीड़ा को और बढ़ाने का काम करता है | मैं व्यक्तिगत तौर पर ऐसे किसी भी कानून को मानवता के लिए अभिशाप मानता हूँ जो दूसरों को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं देता हो | जो विना जांच के व्यक्ति को जेल भेजने की वकालत करता हो या पुलिस एवं प्रशासन को असीमित अधिकार देता हो | अगर पुलिस और प्रशासन अपना काम इमानदारी से करते तो ये कानून बनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती | कोई भी कानून कभी अच्छा-बुरा, मजबूत- कमजोर या प्रभावी-निशप्रभावी नहीं होता है भारतीय दंड संहिता की धारा 107/151 का सदुपयोग करके एक थानाध्यक्ष क्षेत्र के अंदर कानून व्यवस्था को दुरस्त कर देता है और दूसरा थानाध्यक्ष उसका दुरूपयोग कर सामान्य लोगों के अन्याय का पर्याय बन जाता है |
          न्याय सभी को मिलना चाहिए | उसके लिए व्यवस्था और तंत्र भी होना चाहिए लेकिन वो सभी के लिए बराबर होना चाहिए और कोई भी कानून आमिर-गरीब, जाति, वर्ग, धर्म अथवा लिंग के आधार पर नहीं बनना चाहिए | हम भगवान् श्रीराम के देश में रहते हैं जो मर्यादा पुरुषोतम थे | जिन्होंने राम राज्य की स्थापना की थी जिसमें समान्य नागरिक से लेकर राजा तक सभी के लिए एक ही कानून था | शायद इसी बजह से भगवान् राम ने कानून/नियम तोड़ने पर अपने भाई लक्ष्मण को भी मृत्यु दंड देकर त्याग दिया था |
          अंत में मुझे इतना ही कहना है कि उपरोक्त घटनाक्रम हमें सीख देने वाली  है | अगर एक कानून देश की सबसे बड़ी पंचायत के चुने हुए जनप्रतिनिधि को इतना लाचार बना सकता है तो सामान्य लोगों के साथ क्या होता होगा इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है | देश के प्रबुद्ध वर्ग को अवश्य विचार करना चाहिए और देश की निति निर्धारकों को एक ऐसा रास्ता निकालना चाहिए ताकि दलित समाज का उत्पीड़न भी न हो और उन्हें समाज में सम्मान के साथ रहने का अवसर मिलता रहे  | साथ ही सामान्य वर्ग के लोगों का शोषण भी रुक जाए | इसमें दलित समाज के कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को भी साथ लिया जा सकता है क्योंकि शांति, सामाजिक सौहार्द एवं सहकारिता के बगैर हम भारत के उज्जवल भविष्य की कामना नहीं कर सकते हैं |  

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